हम जल रहे थे और ब-ज़ाहिर निशाँ न था दिल की लगी वो आग थी जिस में धुआँ न था रोका था मुझ को मेरी ख़ुदी के हिजाब ने देखा तो उन के दर पे कोई पासबाँ न था मौहूम जल्वा था तिरे अक्स-ए-ख़याल का बदला ख़याल तू ने तो सारा जहाँ न था वो कर रहे थे मुझ को वफ़ाओं में पुख़्ता-कार मश्क़-ए-सितम है मद्द-ए-नज़र इम्तिहाँ न था परवाज़-ए-फ़िक्र भी रही ज़ौक़-ए-नज़र के साथ पाबंदी-ए-क़फ़स से मुझे कुछ ज़ियाँ न था था ए'तिबार-ए-नक़्स-ओ-कमाल-ए-निगाह-ए-शौक़ वो जल्वा जो अयाँ भी नहीं था निहाँ न था हम को तो इल्तिफ़ात-ए-करम का रहा ख़याल वर्ना ज़बाँ पे हर्फ़-ए-तमन्ना गिराँ न था बिजली चमक चमक के नज़र डालती रही गिरती कहाँ चमन में मिरा आशियाँ न था थी ज़िंदगी मुहाल ग़म-ए-इश्क़ के बग़ैर जो ग़म दिया गया था ग़म-ए-जावेदाँ न था इंकार करते क्या कि ज़लूम-ओ-जहूल थे ये तो नहीं कि बार-ए-अमानत गिराँ न था 'शाकिर' हुआ वफ़ा-ए-मुसलसल से कामयाब आग़ाज़-ए-इश्क़ में तो वो कुछ मेहरबाँ न था