हम जिस तरफ़ निकल पड़े वारफ़्तगी के साथ मंज़िल ने चूम चूम लिया सरख़ुशी के साथ हम जानते हैं कोई बहाना तराश कर पेश आएँगे वो हम से बड़ी बे-रुख़ी के साथ वो जन्नत-ए-निगाह जो है ऐन-ए-ज़िंदगी अक्सर उठी है मेरी तरफ़ बरहमी के साथ शोख़ी सी कुछ झलकती है उन की निगाह से चलते तो हैं क़दम-ब-क़दम सादगी के साथ कुछ भी न कह सके मिरे हाल-ए-तबाह पर सुनते रहे फ़साना-ए-ग़म ख़ामुशी के साथ मायूस हो के पलटे जो ऐवान-ए-हुस्न से फिर आरज़ू लिपट गई दीवानगी के साथ वो सामने है मंज़िल-ए-जानाँ की सरज़मीं ऐ मुख़्लिसान-ए-इश्क़ चलो बे-ख़ुदी के साथ मतलब ही जैसे कुछ उन्हें 'इक़बाल' से नहीं आए भी हैं वो दिल में तो किस सादगी के साथ