हम कि लम्हात के तेवर पे नज़र रखते हैं देख हर हाल में जीने का हुनर रखते हैं ग़ैर की राह पे चलना नहीं फ़ितरत अपनी हम ज़माने से जुदा अपनी डगर रखते हैं जो कटे हक़ के लिए रौनक़-ए-मक़्तल ठहरे हम सजाए हुए शानों पे वो सर रखते हैं बे-निशानी तो मुक़द्दर है अज़ल से अपना अपनी पहचान का इक नक़्श मगर रखते हैं हम वही ख़ाक-नशीं हैं कि ज़मीं पर रह कर चर्ख़ के चाँद सितारों पे गुज़र रखते हैं हम को आसाइश-ए-मंज़िल न सदा देना कभी वो मुसाफ़िर हैं कि पैरों में सफ़र रखते हैं वादियाँ सूरत-ए-गुलज़ार महक उठती हैं ख़ार-ज़ारों में भी हम पाँव अगर रखते हैं हामिल-ए-सोज़ हो 'जौहर' न ग़ज़ल क्यों अपनी हम छुपाए हुए सीने में शरर रखते हैं