हम को आता है जला कर दिये घर घर रखना हम ने सीखा न बग़ल में कभी ख़ंजर रखना ये तो ख़ूबी है कि शीशों से मोहब्बत रक्खो फिर भी लाज़िम है तुम्हें हाथ में पत्थर रखना नोच डालेंगी तुझे तेज़ उक़ाबी नज़रें दुख़्तर-ए-शर्म लपेटे हुए चादर रखना अब कहाँ हैं वो क़लंदर कहाँ उन को ढूँढें जिन को आसान था कूज़े में समुंदर रखना बस तुम्हारा है यही आज इसे रौशन रखो कल की ख़ातिर न चराग़ों को बुझा कर रखना ये मेरा अज़्म-ए-सफ़र सर्द न पड़ जाए कहीं तुम मिरी राह में हर दिन नया पत्थर रखना शिद्दत-ए-भूक से मर जाना गवारा कर लो पर न एहसाँ किसी कम-ज़र्फ़ का सर पर रखना घिर भी जाओ जो अँधेरों में कहीं तुम 'राहत' फिर भी नज़रों में तुम अपनी मह-ओ-अख़्तर रखना