मिरी आँखों के वो ठहरे हुए पानी में रहते हैं ज़माना बे-अदब है मेरी निगरानी में रहते हैं बसा लेते हैं जो आँखों में सपने आशियानों के हमेशा वो परिंदे ही परेशानी में रहते हैं घटा मुहताज रहती है तिरी आँखों के काजल की हँसी के कारवाँ फूलों की अफ़्शानी में रहते हैं मैं छोड़ आया था आँखें मुंतज़िर उन के दरीचे में हमेशा वो इसी जुरअत पे हैरानी में रहते हैं झलक है ग़ुंचा-ओ-गुल के लहू की उस की आँखों में अजब माली है जिस की हम निगहबानी में रहते हैं खुली आँखें भी हों मिलना सँभल कर फिर भी ऐ 'राहत' दरिंदे भी छुपे अब जिस्म-ए-इंसानी में रहते हैं