हम को ख़ुलूस-ए-दिल का किसी ने सिला दिया है इक तू ने ग़म दिया है सो वो भी क्या दिया है शहर-ए-निगार-ए-दिल है आतिश-कदे की सूरत मौसम ने इस बरस भी तोहफ़ा बड़ा दिया है हम से निहाल-ए-गुलशन रंगीं-नफ़स हुए हैं दस्त-ए-सबा को हम ने रंग-ए-हिना दिया है अपनों की जुस्तुजू है अपने मगर कहाँ हैं लोगों ने जाने हम को किस का पता दिया है जाँ वारते उसी पर वो क़द्र-दाँ जो होता बस पास था जो अपने वो सब लुटा दिया है ऐसी हवा में तन्हा क्यूँ छोड़ते हो उस को यारो 'ख़लील' अब तक जलता हुआ दिया है