हम न तन्हा उस गली से जाँ को खो कर उठ गए सैकड़ों याँ ज़िंदगी से हाथ धो कर उठ गए देखने पाए न हम अश्कों का अपने कुछ समर तुख़्म गोया यास के ये थे जो बो कर उठ गए कल तिरे बिन बाग़ मैं कुछ दिल न अपना जो लगा अश्क-ए-ख़ूनीं में गुलों को हम डुबो कर उठ गए लोटते हैं इस अदा-ओ-नाज़ पर और ग़श में हम थे वो अहमक़ जो कि तेरी खा के ठोकर उठ गए जान-ओ-दिल हम इक जगह बैठे थे कूचे में तिरे पासबाँ के हाथ से आवारा हो कर उठ गए तू गया था ढूँढने उन को कहाँ वे तो 'हसन' तेरे घर में आए बैठे लेटे सो कर उठ गए