हम ने देखा है भरे शहर में साया अपना एक सूरज है पस-ए-पुश्त पराया अपना ग़म-कदा अश्क-ए-मुसलसल से निहाल-ए-शब है ज़ख़्म-ए-ताज़ा को दर-ए-यार बनाया अपना चाँद से पार कोई रात बसेरा डाले हम से पूछे है कोई ख़ून बहाया अपना अब तो हर शक्ल यहाँ ज़ेब-ए-नुमाइश ठहरी हम ने तमसील-नगर ऐसा बसाया अपना दुख़्तर-ए-मशरिक़-ओ-मग़रिब को भी देखो 'कौसर' रूह को आम किया कुछ न छुपाया अपना