हम ने हर ग़म दिल-ए-सद-चाक से बाहर रक्खा आग को पैरहन-ए-ख़ाक से बाहर रक्खा ज़ेब-ए-तन हम ने भी कर रक्खी ये दुनिया लेकिन तेरे हर रंग को पोशाक से बाहर रक्खा ख़्वाब-दर-ख़्वाब तुझे ढूँडने वालों ने भी अब नींद को दीदा-ए-नमनाक से बाहर रक्खा इक तरह ध्यान ही ऐसा कि जिसे हम ने यहाँ नफ़अ' नुक़सान के पेचाक से बाहर रक्खा उजरत-ए-इश्क़ बहुत कम थी सौ हम ने 'शहज़ाद' दिल को इस तंगी-ए-अफ़्लाक से बाहर रक्खा