किस बुर्ज में फ़लक ने सितारे मिलाए हैं दस्त-ए-शब-ए-फ़िराक़ में साए ही साए हैं गुलज़ार-ए-ज़िंदगी के हैं गुल-दान के नहीं ये फूल कार-ख़ाना-ए-क़ुदरत से आए हैं ख़स्ता हुए तने तो जड़ें फूटने लगीं पेड़ों ने अपने अपने बदन फिर उगाए हैं सामान-ए-बूद-ओ-बाश था जंगल से शहर तक हम अपना बोझ नफ़्स के घोड़ों पे लाए हैं दुनिया में इतने शोर-शराबे के बावजूद जो बोलते नहीं हैं वही अहल-ए-राय हैं हम सर-फिरों का ज़ौक़-ए-सुकूनत न पूछिए जब शहर तंग हो गए सहरा बसाए हैं लगता है अपना ज़ेहन भी अपना नहीं 'नसीम' ख़ुद-साख़्ता ख़याल भी जैसे पराए हैं