हम ने माना कि जहाँ हम थे गुलिस्ताँ तो न था मगर ऐसा भी वहाँ कूचा-ए-वीराँ तो न था अपना साया था फ़क़त ज़ीस्त का सामाँ तो न था साथ चलता था जो साया मिरे इंसाँ तो न था ख़ार-ओ-ख़स गुल से नहीं कम तिरे वीरानों के दश्त में वर्ना कहीं कोई गुलिस्ताँ तो न था ज़र्रा ज़र्रा है तिरी ख़ाक का महबूब मुझे उस का एहसास मुझे याँ है मगर वाँ तो न था मुझ पे इल्ज़ाम लगाते हो जुनूँ-ख़ेज़ी का चाक-दामाँ था मगर चाक-गरेबाँ तो न था कौन समझेगा उसे उस को ज़रूरत क्या है कभी मोहताज-ए-बयाँ क़िस्सा-ए-'सुल्ताँ' तो न था