हम तो हैं हसरत-ए-दीदार के मारे हुए लोग यानी इक नर्गिस-ए-बीमार के मारे हुए लोग जल गए धूप में जो उन का शुमार एक तरफ़ कम नहीं साया-ए-दीवार के मारे हुए लोग तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है कैसे हैं सब तिरी रफ़्तार के मारे हुए लोग देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात हम हैं ख़ुद अपने ही किरदार के मारे हुए लोग रोज़ ही ख़ल्क़-ए-ख़ुदा मरती है या दोबारा ज़िंदा हो जाते हैं अख़बार के मारे हुए लोग तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए फिर खड़े हैं तिरे इंकार के मारे हुए लोग