हम यही सोच रहे थे कि समंदर न रहे मौजा-ए-दिल ने कहा उठ के शनावर न रहे उस ने हिम्मत जो बढ़ाई तो रखा ये भी लिहाज़ कोई बुज़दिल न बने कोई दिलावर न रहे उस ने इस तरह उतारी मिरे ग़म की तस्वीर रंग महफ़ूज़ तो रह जाएँ प मंज़र न रहे उस ने किस नाज़ से बख़्शी है मुझे जा-ए-पनाह यूँ कि दीवार सलामत हो मगर घर न रहे अब ये साज़िश है कि लिक्खे न कोई क़िस्सा-ए-दिल लफ़्ज़ रह जाएँ मगर कोई सुख़नवर न रहे अपने बिगड़े हुए चेहरों को भुला दें सब लोग जश्न-ए-आईना मने हाथों में पत्थर न रहे अब के आँधी भी चली जब तो सलीक़े से चली यूँ कि रह जाए शजर शाख़-ए-समर-वर न रहे