समर-रुतों में तो झुक कर गुज़ारना होगा शजर को संग-ए-मलामत सहारना होगा जो बर्फ़-ज़ाद हैं तेशे शुआ'ओं के दे कर उन्हें भी ताज़ा सफ़र पर उभारना होगा करीम बाप की सूरत जदीद नस्लों को बड़े हुनर से हमी को सुधारना होगा जो ज़ेहन सीम की यलग़ार से हुए बंजर उन्हें भी हुस्न-ए-अमल से सँवारना होगा लबों पे फूल खिलाएँ दिलों को राम करें ख़बर नहीं किसे किस दिन सुधारना होगा वो बस्तियाँ जिन्हें ताराज कर गया दरिया जदीद रंग से उन को उसारना होगा वो जिन को क़ुव्वत-ओ-मंसब अता किया तू ने मिरे ख़ुदा उन्हें यज़्दाँ पुकारना होगा जलाना होंगी हमें कश्तियाँ लब-ए-दरिया कि यूँ भी जोश-ए-हमिय्यत उभारना होगा सलीब-ए-शब पे उभरना है शान से 'अख़्तर' सहर का क़र्ज़ हमी को उतारना होगा