हम यूँ ही किसी से ख़लिश-ए-जाँ नहीं कहते रूदाद-ए-अलम ता-हद-ए-इम्काँ नहीं कहते जो अपने फ़राएज़ से निपटने में उलझ जाए हम लोग उसे ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ नहीं कहते करते ही नहीं बात कभी मस्लहत-आमेज़ मकरूह रुख़ों को मह-ए-ताबाँ नहीं कहते अब ऐसे बड़े लोग ज़माने में कहाँ हैं जो कर के किसी पर कोई एहसाँ नहीं कहते जो शाम हो अनवार-ए-शहादत से मुनव्वर उस शाम को हम शाम-ए-ग़रीबाँ नहीं कहते तन्क़ीद में करते हैं जो इंसाफ़ से परहेज़ दर-अस्ल 'क़दीर' उन को सुख़न-दाँ नहीं कहते