हम ने इस बात को पहले कभी सोचा ही नहीं कि यहाँ दिल की ज़बाँ कोई समझता ही नहीं सर छुपाने को दरख़्तों की घनी छाँव भी है शहर में इक तिरी दीवार का साया ही नहीं जिस में खो जाएँ तो रस्ता न मिले शहरों का शायद इस दौर में ऐसा कोई सहरा ही नहीं तू जहाँ जाएगी मायूस पलट आएगी ज़िंदगी कोई तिरा पूछने वाला ही नहीं डूब जाना ही मुक़द्दर में लिखा है शायद इस समंदर में जहाँ कोई जज़ीरा ही नहीं जाने क्यों टूट के वो शख़्स मिला था मुझ से इस से पहले कहीं जिस ने मुझे देखा ही नहीं मैं भरे घर में अकेला हूँ बड़ी मुद्दत से मेरा ग़म ये है कि मुझ को कोई समझा ही नहीं तुम अंधेरे में किसे ढूँड रहे हो 'वाली' कोई रातों में यहाँ घर से निकलता ही नहीं