हुनर की कार-गह से शय अजब निकल आए मैं दिन बनाता रहूँ और वो शब निकल आए दलील अपनी जगह पर ये ऐन-मुमकिन है कि बे-सबब का भी कोई सबब निकल आए कोई सितारा था हैरत भरा नज़ारा था घरों में सोए हुए लोग सब निकल आए निकलना है इसी शब माह-ए-वस्ल ने लेकिन यक़ीं से कह नहीं सकता कि कब निकल आए मैं देखने में बहुत महव था तिरी तस्वीर कि चूमने को मुझे तेरे लब निकल आए ऐ बे-नियाज़ जहाँ कुछ तो ग़ौर कर शायद कहीं दबी हुई कोई तलब निकल आए बुरी तरह से हैं दिन धुँद की हिरासत में किसी तरफ़ से ज़रा धूप अब निकल आए मज़ा तो जब है उदासी की शाम हो 'शाहीं' और उस के बीच से शाम-ए-तरब निकल आए