मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था सुलूक करता था और ग़ाएबाना करता था अजीब उस की तलब थी अजब था अस्प-ए-सवार कि मुल्क-ओ-माल की परवा ज़रा न करता था शिआर-ए-ज़ीस्त हुनर था सो हम न जान सके जो काम हम नय किया दूसरा न करता था सफ़र-गिरफ़्ता रहे कुश्तगान-ए-नान-ओ-नमक हमारे हक़ में कोई फ़ैसला न करता था फ़ज़ा में हाथ तो उट्ठे थे एक साथ कई किसी के वास्ते कोई दुआ न करता था तमाम सूरत-ए-तरतीब इस को आती है अगरचे ख़ैर को शर से जुदा न करता था वो क़ल्ब-गाह-ए-तमन्ना में इक चराग़ की लौ को तेज़ रखता था नज़्र-ए-हवा न करता था उठा रखा था उसी पर से ए'तिबार तमाम और इंतिज़ार भी उस का ज़माना करता था उन्हीं घरों से इबारत है अपनी शाम-ए-जहाँ चराग़-ए-ताक़ भी अक्सर जला न करता था