मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था

मिरे सुपुर्द कहाँ वो ख़ज़ाना करता था
सुलूक करता था और ग़ाएबाना करता था

अजीब उस की तलब थी अजब था अस्प-ए-सवार
कि मुल्क-ओ-माल की परवा ज़रा न करता था

शिआर-ए-ज़ीस्त हुनर था सो हम न जान सके
जो काम हम नय किया दूसरा न करता था

सफ़र-गिरफ़्ता रहे कुश्तगान-ए-नान-ओ-नमक
हमारे हक़ में कोई फ़ैसला न करता था

फ़ज़ा में हाथ तो उट्ठे थे एक साथ कई
किसी के वास्ते कोई दुआ न करता था

तमाम सूरत-ए-तरतीब इस को आती है
अगरचे ख़ैर को शर से जुदा न करता था

वो क़ल्ब-गाह-ए-तमन्ना में इक चराग़ की लौ
को तेज़ रखता था नज़्र-ए-हवा न करता था

उठा रखा था उसी पर से ए'तिबार तमाम
और इंतिज़ार भी उस का ज़माना करता था

उन्हीं घरों से इबारत है अपनी शाम-ए-जहाँ
चराग़-ए-ताक़ भी अक्सर जला न करता था


Don't have an account? Sign up

Forgot your password?

Error message here!

Error message here!

Hide Error message here!

Error message here!

OR
OR

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link to create a new password.

Error message here!

Back to log-in

Close