हुस्न बदनाम हुआ इश्क़ के अफ़्सानों से एक फ़ित्ना है जो उट्ठा कई उनवानों से दिल है मामूर तिरी याद से अरमानों से न रहा घर मिरा ख़ाली कभी मेहमानों से दिल शगुफ़्ता न हो क्यों आज बयाबानों से ग़म-ए-गीती की है रौनक़ इन्ही वीरानों से ख़बर-ए-फ़स्ल-ए-बहारी ने क़यामत ढा दी शोर-ए-फ़रियाद उठा कितने ही ज़िंदानों से हम ने सीखा नहीं साहिल पे भरोसा करना बढ़ के तूफ़ान हुए भिड़ गए तूफ़ानों से किस तरह आलम-ए-असबाब को ठुकराते हैं पूछिए जा के कभी बे-सर-ओ-सामानों से जान देना तो गवारा है मगर ऐ शब-ए-ग़म मुझ को अल्लाह बचाए तिरे एहसानों से कश्ती अपनी कभी शर्मिंदा-ए-साहिल न हुई उम्र सारी ये उलझते रही तूफ़ानों से ऐसे लोगों से रखूँ ख़ाक तवक़्क़ो मैं 'क़दीर' काम पड़ता है तो हो जाते हैं अन-जानों से