हुस्न हीरे की कनी हो जैसे और मिरी जाँ पे बनी हो जैसे तेरी चितवन के अजब तेवर हैं सर पे तलवार तनी हो जैसे रेज़ा रेज़ा हुए मीना-ओ-अयाग़ रिंद-ओ-साक़ी में ठनी हो जैसे अपनी गलियों में हैं यूँ आवारा कि ग़रीब-उल-वतनी हो जैसे हर मुसाफ़िर तिरे कूचे को चला उस तरफ़ छाँव घनी हो जैसे तेरी क़ुर्बत की ख़ुमार-आगीनी रुत शराबों में सनी हो जैसे ये कशाकश की मय-ए-मर्द-अफ़्गन तेरी पलकों से छनी हो जैसे