हुस्न हो इश्क़ का ख़ूगर मुझे रहने देते तुम हो मंज़र पस-ए-मंज़र मुझे रहने देते मुझ से तहज़ीब-ए-रिया-कार की तज़ईं क्यूँ की ना-तराशीदा था पत्थर मुझे रहने देते मैं ने कब चाहा कि क़ैद-ए-दर-ओ-दीवार मिले मैं तो आवारा हूँ बेघर मुझे रहने देते वक़्त ओ हालात से ख़्वाहिश थी फ़क़त चंद ही रोज़ क़ैद-ए-लम्हात से बाहर मुझे रहने देते मैं ने असनाम तराशे तो बिगाड़ा क्या था तुम बराहीम थे 'आज़र' मुझे रहने देते