हुस्न इस शम्अ-रू का है गुल-रंग क्यूँ न बुलबुल जले मिसाल-ए-पतंग ख़त्त-ए-शब-रंग उस परी-रू का देख आया है आरसी पर ज़ंग उस के नाज़ुक बदन में हुए निहाँ पहने गर वो सनम क़बा-ए-तंग देख मजनूँ ने बस कहा मुझ कूँ इस क़दर मारते हैं तिफ़्लाँ संग साक़िया जाम मय सूँ कर सरशार मुझ कूँ दरकार नीं है नाम-ओ-नंग ग़ैर गर्दिश के पहुँचता नहीं रिज़्क़ शाहिद उस पर है आसिया का संग यक क़दम राह-ए-दोस्त है 'दाऊद' लेकिन अफ़सोस पा-ए-बख़्त है लंग