हुस्न की दिल में मिरे जल्वागरी रहती है बंद इस शीशा-ए-नाज़ुक में परी रहती है दिल वहाँ खुलता है जिस जा कि रहे जाम-ए-शराब दाना वाँ उगता है जिस जा कि तरी रहती है तिफ़्ली-ओ-अहद-ए-जवानी का न पूछो अहवाल बे-ख़ुदी आगे थी अब बे-ख़बरी रहती है बाग़-ए-आलम में नहीं दस्त-ए-करम को है ज़वाल शाख़ ये वो है जो ता-हश्र हरी रहती है याद में जाम-ओ-सुराही के तिरे ऐ साक़ी दिल भरा रहता है आँखों में तरी रहती है मय-ओ-माशूक़ से दौलत से बहार-ए-गुल में चक्खियाँ रहती है हैं यारों की चरी रहती है हर घड़ी रहता है ख़ाल-ए-रूख़-ए-महबूब का ध्यान आज-कल सामने कोतह-नज़री रहती है भीड़ सी भीड़ लगी रहती है कूचे में तिरे जिंस उल्फ़त की मगर वहाँ पे खरी रहती है नक़्द-ए-दिल लेते हो हर एक का बे-बोस-ओ-कनार आप के ध्यान में क्या मुफ़्त-बरी रहती है हाथ पकड़ा है मिरा दस्त-ए-जुनूँ ने जब से हर घड़ी मद्द-ए-नज़र जामा-दरी रहती है बाल खोले नहीं फिरता है अगर वो सफ़्फ़ाक फिर कहो क्यूँ मुझे आशुफ़्ता-सरी रहती है रिंद वाँ बसते हैं जिस जा हो ख़ुम-ओ-ख़ुम-ख़ाना शेर वाँ रहते हैं जिस जा कि तरी रहती है