हुस्न के वसवसे से बाहर मिल तू मुझे आइने से बाहर मिल रख भरम कुछ तो बे-लिबासी का शर्म के दाएरे से बाहर मिल मावरा नज़्म की हो बंदिश से तू मुझे क़ाफ़िए से बाहर मिल वज्द की कैफ़ियत में छू मुझ को होश के दाएरे से बाहर मिल प्यार के राग राग रहने दे इश्क़ के फ़लसफ़े से बाहर मिल अब्र की झोंपड़ी से बाहर आ रेत के क़ाफ़िले से बाहर मिल खोल न ताक़चे को उजलत में चैन से हौसले से बाहर मिल ख़्वाब की बारगह में हाज़िर हो नींद के ज़ाविए से बाहर मिल खींच ले वक़्त की तनाबों को जिस्म के फ़ासले से बाहर मिल क्या कहा जिस्म नोचना है तुझे शाम के हाशिए से बाहर मिल ख़ाक पर फेंक दे अँगूठी को घर के इस फ़ैसले से बाहर मिल देख जा हिज्र की मुसीबत में वस्ल के हादसे से बाहर मिल बे-ख़तर हाथ थाम 'राहिब' का ख़ौफ़ के सिलसिले से बाहर मिल