हुस्न की लाई हुई एक भी आफ़त न गई दिल की धड़कन न गई दर्द की शिद्दत न गई साया तक भाग गया देख के वहशत घर की क्या बला है कि इलाही शब-ए-फ़ुर्क़त न गई हुस्न-ए-दिलकश इसे कहते हैं कि हम सारी उम्र उन को देखा किए दीदार की हसरत न गई अब भी इस राहगुज़र में है जहाँ थी पहले सच तो ये है न कहीं आई क़यामत न गई मैं ज़माने में हूँ आईना-ए-तस्वीर 'जलील' कि तसव्वुर से कभी यार की सूरत न गई