हुस्न किस रोज़ हम से साफ़ हुआ गुनह-ए-इश्क़ कब मुआफ़ हुआ ले लिया शुक्र कर के साक़ी से दर्द इस में हुआ कि साफ़ हुआ तेग़-ए-क़ातिल पर अपना ख़ून जम कर मख़मल-ए-सुर्ख़ का ग़िलाफ़ हुआ ज़हर परहेज़ हो गया मुझ को दर्द दरमाँ से अलमुज़ाफ़ हुआ ख़ाकसारी की हो चुकी मेराज सीना अपना ज़मीन-ए-साफ़ हुआ कमर-ए-यार ने दिखाई आँख मर्दुम-दीदा ख़ाल-ए-नाफ़ हुआ वादा झूटा नकर्दा मर्द नहीं क़ौल से फ़े'अल जब ख़िलाफ़ हुआ फ़ातिहा को जो वो परी आई संग-ए-क़ब्र अपना कोह-ए-क़ाफ़ हुआ उस कमर के सुबूत में आजिज़ फ़िक्र कर कर के मूशिगाफ़ हुआ रिंद-मशरब हूँ मुझ को क्या होवे मज़हबों में जो इख़्तिलाफ़ हुआ वो दहन हूँ न निकला हर्फ़-ए-ग़ुरूर वो ज़बाँ हूँ न जिस से लाफ़ हुआ गिर्द इस कूचा के फिरा 'आतिश' हाजी से काबा का तवाफ़ हुआ