हुस्न को ग़ैर की नज़रों से न परखा जाए देखने वाले का मेआ'र भी देखा जाए आओ तजदीद-ए-वफ़ा को ही बहाना कर लें मुंजमिद दरिया में तूफ़ान उठाया जाए बाद मुद्दत के फिर एहसास-ए-तरब जागा है फिर से पलकों को सितारों से सजाया जाए इम्तिहाँ ज़र्फ़ का अपने ही अगर लेना है कल जो पाया था चलो आज वो खोया जाए