हुस्न क्या क्या मुस्कुराया इश्क़ के अंदाज़ पर नग़्मा-ए-ग़म जब भी छेड़ा हम ने दिल के साज़ पर ख़ार-ज़ार-ए-ज़िंदगी को भी बना देता है ख़ुल्द क्यों न हम ईमान लाएँ इश्क़ के ए'जाज़ पर तेरी अपनी ज़ात में मुज़्मर है हुस्न-ए-लम-यज़ल किस लिए सज्दे पे सज्दा जल्वा-गाह-ए-नाज़ पर जल्वा-फ़रमा कौन मेहर-ओ-माह के पर्दे में है रक़्स करता है निज़ाम-ए-दहर किस के साज़ पर बाल-ओ-पर से कब कोई पहुँचा फ़राज़-ए-अर्श तक ये सआ'दत मुनहसिर है हिम्मत-ए-परवाज़ पर हैं वही मक़्बूल-ए-आलम जो गरेबाँ-चाक हैं हर कली गुल बन गई इस इंकिशाफ़-ए-राज़ पर आ गई सेहन-ए-चमन में फ़स्ल-ए-गुल तो क्या हुआ हैं वही ग़म के तराने ज़िंदगी के साज़ पर राज़-ए-उल्फ़त ग़ैर से कहना है नंग-ए-आशिक़ी नाज़ था मंसूर को क्यों इंकिशाफ़-ए-राज़ पर इश्क़ की क़िस्मत में होते हैं सलीब-ओ-दार भी शाद ऐ 'साबिर' न हो तू लज़्ज़त-ए-आग़ाज़ पर