जिस को नसीब इफ़्फ़त-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र नहीं आँखों में लाख नूर सही दीदा-वर नहीं हुस्न-ए-तलब नहीं कहीं ज़ौक़-ए-नज़र नहीं वर्ना वो आफ़्ताब कहाँ जल्वा-गर नहीं माना कि तू है महरम-ए-राज़-ए-निहाँ मगर अपनी ख़बर नहीं है तो कुछ भी ख़बर नहीं मैं ख़ुद ही जज़्ब-ए-इश्क़ पे क़ाबू न रख सका तुझ से तो कोई शिकवा मुझे चश्म-ए-तर नहीं होते हैं बारयाब यहाँ सरफ़रोश ही ये बारगाह-ए-इश्क़ है ख़ाला का घर नहीं हुस्न-ए-नज़र अता हो तो हर ज़र्रा तूर है कुछ भी हसीं नहीं है जो हुस्न-ए-नज़र नहीं वो क्या गए कि इश्क़ की दुनिया उजड़ गई दीवार-ओ-दर नहीं हैं वो शाम-ओ-सहर नहीं सुन कर तिरे कलाम को वो हम-कलाम हों 'साबिर' तिरे कलाम में इतना असर नहीं