हुस्न उन का अपने ज़ौक़-ए-दीद में पाता हूँ मैं सामने हो कर वो छुपते हैं तड़प जाता हूँ मैं इशरत-ए-जल्वा भी हो जाए जहाँ हैरत-ज़दा ऐ ख़याल-ए-दोस्त उस मंज़िल पे घबराता हूँ मैं देखता हूँ अपने ग़म-ख़्वारों की जब बे-दर्दियाँ हुस्न-ए-बेपर्दा की रह रह कर क़सम खाता हूँ मैं इंतिज़ार उस का है कितना जाँ-गुसिल क्यूँकर कहूँ ख़त में जिस का नाम ही लिख कर तड़प जाता हूँ मैं कब सँभलने देगी ग़श से उन की चश्म-ए-बर्क़-पाश मुज़्दा बादा-ए-बे-ख़ुदी आते हैं वो जाता हूँ मैं बे-ख़याली में कभी अपनी ज़बान-ए-हाल से ख़स्ता-हाली के मज़े उन को भी समझाता हूँ मैं आह अब तक की नहीं सैर-ए-बहारिस्तान-ए-दिल इक ख़याली रौ में ऐ हमदम बहा जाता हूँ मैं हैरत-अफ़्ज़ा है मिरा इश्क़-ए-मोहब्बत-आफ़रीं ख़ुद ही अब मुज़्तर नहीं उन को भी तड़पाता हूँ मैं रास्ता छोड़ ऐ तग़ाफ़ुल मेरे घर आते हैं वो रहबरी कर ऐ तमन्ना उन के घर जाता हूँ मैं हैरत-ए-मश्क़-ए-तसव्वुर खो न दे मुझ को कहीं सामने अपने तुझे ऐ दिल-नशीं पाता हूँ मैं ला रही है उन की चश्म-ए-लुत्फ़ इशरत के पयाम देख ऐ 'मंज़ूर' अब कैसा नज़र आता हूँ मैं