हुस्न-ए-अज़ल ने पहले हमें जल्वा-गर किया दुनिया-ए-हस्त-ओ-बूद से फिर बे-ख़बर किया उस बे-नियाज़-ए-इश्क़ ने आशुफ़्ता-सर किया दैर-ओ-हरम सजाए परेशाँ-नज़र किया आसूदगान-ए-ख़ाक को फिर दर-ब-दर किया ज़ौक़-नुमूद-सुब्ह में बर्ग-ओ--शजर किया ता-उम्र अपनी ज़ात के अंदर बसर किया इस काएनात-शौक़ को हम ने भी सर किया दम भर रुके थे साया-मिज़्गान-ए-यार में उस ख़ानुमाँ-ख़राब ने भी दिल में घर किया हम को शुऊर-ए-सब्र-ओ-रज़ा से नवाज़ कर ग़म-आश्नाए-लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-जिगर किया अहल-ए-जुनूँ ने दश्त-नवर्दी की राह में आवारगान-ए-इश्क़ को भी हम-सफ़र किया तुझ को ही हम से वस्ल की मोहलत नहीं मिली हम ने तो इंतिज़ार तिरा उम्र भर किया परतव है तेरी ज़ात का हर लम्हा-ए-वजूद हम ने ये फ़ैसला तिरी आयात पर किया लो बारगाह-ए-दर्द में रख कर मता-ए-दिल 'रिफ़अत' ने इस जहान से आगे सफ़र किया