हुस्न-ए-सूरत में गरचे बूद नहीं पर कहाँ इश्क़ की नुमूद नहीं नीस्ती जल्वा-गर है हस्ती में कुछ अदम का मिरे वजूद नहीं हम ने अव्वल से देखा आख़िर तक ज़ात हक़ की नबूद-ओ-बूद नहीं तेरे हुस्न-ए-मलीह के क़ुर्बान किस के विर्द-ए-ज़बाँ दुरूद नहीं मेरे साक़ी के पेश साग़र-ए-चश्म शीशे को कब सर-ए-सुजूद नहीं दाग़-ए-सोजाँ है जिस्म में वो उज़्व संग-ए-आफ़त से जो कबूद नहीं बाग़ है दाग़ गर न हो लाला बज़्म वो क्या है जिस में ऊद नहीं बस-कि है कुंद नाख़ुन-ए-मिज़्गाँ उक़्दा-ए-अश्क की कुशूद नहीं हम जो कहते थे तुम से रोज़ 'वक़ार' जुज़ ज़रर आशिक़ी में सूद नहीं