हुसूल-ए-अज़्मत-ए-माज़ी का ख़्वाब रखते हैं कहाँ हम आज भी अपना जवाब रखते हैं जो हक़ अज़ीज़-ओ-अक़ारिब का दाब रखते हैं वही ज़मीं पे बिना-ए-अज़ाब रखते हैं लवें तुम अपने चराग़ों की अपने पास रखो हम अपने साथ कई आफ़्ताब रखते हैं मेरे करीम तिरी रहमतों के सदक़े में गुनाहगार उमीद-ए-सवाब रखते हैं ख़याल पुर्सिश-ए-आमाल का नहीं है उन्हें जो ज़ेर-दस्तों को ज़ेर-ए-इताब रखते हैं ख़याल-ए-यार ग़म-ए-रोज़गार फ़िक्र-ए-मआ'श हम एक जान को कितने अज़ाब रखते हैं कब उन के सामने काम आई अपनी लफ्फ़ाज़ी वो हर सवाल के सौ सौ जवाब रखते हैं