हुसूल-ए-ज़र न कस्ब-ए-रुत्बा-ए-ज़ी-शाँ पे रक्खी है नज़र हम ने हमेशा ख़िदमत-ए-इंसाँ पे रक्खी है उसी को हर तरह की कामरानी हो गई हासिल असास-ए-ज़ीस्त जिस ने हिकमत-ए-क़ुर्आँ पे रक्खी है अज़ल के रोज़ ही से जिंस-ए-उल्फ़त की गिराँ-बारी नहीफ़-ओ-ना-तवाँ से शाना-ए-इंसाँ पे रक्खी है मोहब्बत प्यार हसरत रंज-ओ-ग़म दर्द-ओ-हिरासानी सभी बातों की तोहमत इक दिल-ए-नादाँ पे रक्खी है तन-आसानी-ए-साहिल को तो कुछ कहता नहीं कोई हर इक ने तोहमत-ए-फ़ित्नागरी तूफ़ाँ पे रक्खी है ये गुल है बर्क़ है शो'ला है कुंदन है कि है लाला न जाने क्या दहकती शय लब-ए-जानाँ पे रक्खी है मह-ओ-ख़ुर्शीद हो जाएँ न मारे शर्म के पानी इसी ख़ातिर नक़ाब उस ने रुख़-ए-ताबाँ पे रक्खी है 'नदीम' उस को मयस्सर आ गई है शोहरत-ए-जावेद सदा अंगुश्त जिस ने गर्दिश-ए-दौराँ पे रक्खी है