हुसूल काम का दिल-ख़्वाह याँ हुआ भी है समाजत इतनी भी सब से कोई ख़ुदा भी है मूए ही जाते हैं हम दर्द-ए-इश्क़ से यारो कसो के पास इस आज़ार की दवा भी है उदासियाँ थीं मिरी ख़ानका में काबिल-ए-सैर सनम-कदे में तो टिक आ के दिल लगा भी है ये कहिए क्यूँके कि ख़ूबाँ से कुछ नहीं मतलब लगे जो फिरते हैं हम कुछ तो मुद्दआ' भी है तिरा है वहम कि मैं अपने पैरहन में हूँ निगाह ग़ौर से कर मुझ में कुछ रहा भी है जो खोलूँ सीना-ए-मजरूह तो नमक छिड़के जराहत उस को दिखाने का कुछ मज़ा भी है कहाँ तलक शब-ओ-रोज़ आह-ए-दर्द-ए-दिल कहिए हर एक बात को आख़िर कुछ इंतिहा भी है हवस तो दिल में हमारे जगह करे लेकिन कहीं हुजूम से अंदोह-ए-ग़म के जा भी है ग़म-ए-फ़िराक़ है दुम्बाला-ए-गर्द ऐश-ए-विसाल फ़क़त मज़ा ही नहीं इश्क़ में बला भी है क़ुबूल करिए तिरी रह में जी को खो देना जो कुछ भी पाइए तुझ को तो आश्ना भी है जिगर में सोज़न-ए-मिज़्गाँ के तीं कढब न गड़ो कसो के ज़ख़्म को तू ने कभू सिया भी है गुज़ार शहर-ए-वफ़ा में समझ के कर मजनूँ कि इस दयार में 'मीर' शिकस्ता-पा भी है