कभी वफ़ाएँ कभी बेवफ़ाइयाँ देखीं मैं उन बुतों की ग़रज़ आश्नाइयाँ देखीं हम उठ चले जो कभी उस गली को वहशत में तो उस घड़ी न कुएँ और न खाइयाँ देखीं ज़हे नसीब हैं उस के कि जिस ने वस्ल की शब गले में अपने वो नाज़ुक कलाइयाँ देखीं ये सतह-ए-ख़ाक है क्या रज़्म-गाह का मैदान कि जिस पे होती हुई नित लड़ाइयाँ देखीं गली में उस की ये बाज़ार-ए-मर्ग गर्म हुआ कि दाद ख़्वाहों की वाँ चारपाइयाँ देखीं रखा न ख़त कभी आरिज़ पे उस परी-रू ने ब-रंग-ए-आईना नित वाँ सफ़ाइयाँ देखीं हुनूज़ जीते रहे हैं तो सख़्त-जानी से वगरना हम ने भी क्या क्या जुदाइयाँ देखीं न हाथ आई मिरे 'मुसहफ़ी' वो ज़ुल्फ़-ए-रसा मैं तालेओं की भी अपने रसाइयाँ देखीं