आई नहीं क्या क़ैद है गुलशन में सबा भी आने लगी ज़ंजीर की कानों में सदा भी पा जाएगा दिल उस में भी तख़सीस के पहलू मा'लूम ये होता तो न करते वो जफ़ा भी ढूँडा किए हर गाम पे हाथों का सहारा भूले से कभी बहर-ए-दुआ हाथ उठा भी शाने पे बिखेरे हुए निखरी हुई ज़ुल्फ़ें बरसी भी तो घनघोर अजब है ये घटा भी भाया है जो मुखड़े को छुपाने का तरीक़ा देखो कभी आँखों को चराने की अदा भी जैसे हो कँवल आब में पाकीज़ा तबीअ'त रहते हुए दुनिया में हैं दुनिया से जुदा भी हर आन जफ़ा जान के करते हो सितम है हर साँस ये कहती है कि हो जान-ए-वफ़ा भी आँखें ये बताती हैं कि दिल और कहीं है कहना था मुझे तुम से अभी इस के सिवा भी मुमकिन है गिरे कोई हिमाला से तो उठ जाए 'हामिद' कभी उट्ठा है निगाहों से गिरा भी