इब्तिदा और इंतिहा का सिलसिला कोई न था तू ही था हर अह्द में तेरे सिवा कोई न था आसमाँ का जब ज़मीं से राब्ता कोई न था एड़ियाँ रगड़ी गई थीं मो'जिज़ा कोई न था वक़्त ऐसा था कि अपना आसरा कोई न था ये गली अपनी थी लेकिन आश्ना कोई न था ख़्वाहिशों की सर-बुलंदी ले के जाती भी कहाँ दायरा था पर्बतों का रास्ता कोई न था ज़ेहन-ओ-दिल की दूरियाँ महफ़ूज़ थीं अपनी जगह और लोगों ने ये समझा फ़ासला कोई न था शहर-ए-पुर-आशोब की तमसील थी अपनी हयात दिल-शिकन इस से ज़ियादा वाक़िआ' कोई न था अपनी अपनी धुन में थे 'ख़ालिद' सभी महव-ए-सफ़र मंज़िल-ए-मक़्सद की जानिब क़ाफ़िला कोई न था