जल रही हैं ख़्वाहिशों की बस्तियाँ मुहर लब पर पाँव में हैं बेड़ियाँ ढूँडने जाएँ कहाँ आसूदगी बुझ चुकी हैं रास्तों की बत्तियाँ गुम हुई घर से मसर्रत की फ़ज़ा बोझ बनती जा रही हैं बेटियाँ मुझ को तुम तन्हा न समझो शहर में साथ फिरती हैं मिरी नाकामियाँ अजनबी अपने ही घर में हो गया हद से आगे बढ़ गईं महरूमियाँ साहिब-ए-फ़न हो गए ज़रदार सब रह गईं मुफ़्लिस के फ़न में ख़ामियाँ सर्द मौसम है हवा लग जाएगी खोल कर 'ख़ालिद' न बैठो खिड़कियाँ