इधर है बाद-ए-सुमूम नालाँ उधर है बर्क़-ए-तपाँ भी आजिज़ मिरी बहारों से हो गई अब हराम-ज़ादी ख़िज़ाँ भी आजिज़ ये होश-ओ-अक़्ल-ओ-ख़िरद की ख़ामी पे हिर्स-ए-रहबर की तिश्ना-कामी कि जिस को सैराब करते करते हुआ है अक्सर कुआँ भी आजिज़ किया है यूँ अज़्म-ए-मुस्तक़िल ने ख़िलाफ़ उन के महाज़ क़ाएम कि आज कल है सितमगरों की चुनीं भी आजिज़ चुनाँ भी आजिज़ तमाम रिंदों ने मय-कदे में अब ऐसी शोरिश मचा रखी है कि शीशे उल्टे सुराही औंधी है मेरा पीर-ए-मुग़ाँ भी आजिज़ जफ़ाएँ दिन रात ढाते ढाते सितम के बानी भी थक न जाएँ शिकार चूहों का करते करते न हों कहीं बिल्लियाँ भी आजिज़ हरीम-ए-नाज़-ओ-अदा में उन की ये कौन दहक़ानी बोलता है है ना-तराशीदा गुफ़्तुगू से ज़बाँ भी लुत्फ़-ए-ज़बाँ भी आजिज़