इधर से भी तो हवा-ए-बहार गुज़री है कुछ एक बार नहीं बार बार गुज़री है गिला नहीं ये फ़क़त अर्ज़-ए-हाल है ऐ दोस्त तिरे बग़ैर बहुत बे-क़रार गुज़री है वही तो मेरी हयात-ए-सफ़र की पूँजी है वो ज़िंदगी जो सर-ए-रहगुज़ार गुज़री है क़लम लिए हुए सोचा किए कि क्या लिखें कुछ इस तरह भी शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है भुला सकेंगे न उस को क़फ़स में ऐ सय्याद वो दो घड़ी जो सर-ए-शाख़-सार गुज़री है कभी कभी तो मिरी बर-महल ख़मोशी भी उन्हें फ़ुग़ाँ की तरह नागवार गुज़री है हुईं जो दिल से मिरे बद-गुमानियाँ उन को तो शाइरी भी मिरी नागवार गुज़री है ख़िज़ाँ में भी न किसी की ख़ुदा करे गुज़रे वो जिस तरह मिरी फ़स्ल-ए-बहार गुज़री है उभर गई है कहीं पर 'रज़ा' जो तल्ख़ी-ए-फ़िक्र मिरे मिज़ाज-ए-ग़ज़ल पर वो बार गुज़री है