इधर ये ज़बाँ कुछ बताती नहीं है उधर आँख कुछ भी छुपाती नहीं है पता है रिहाई की दुश्वारियाँ पर ये क़ैद-ए-क़फ़स भी तो भाती नहीं है कमी रह गई होगी कुछ तो कशिश में सदा लौट कर यूँ ही आती नहीं है मुझे रास वीरानियाँ आ गई हैं तिरी याद भी अब सताती नहीं है ख़फ़ा है करम-फ़रमा है कौन जाने हवा जब दिये को बुझाती नहीं है अगर हो गए सोच में आप बूढ़े तो बारिश बदन को जलाती नहीं है गुमाँ प्यार का हो रहा तब से 'नीरज' क़सम जब से मेरी वो खाती नहीं है