इक आरज़ू यही है मिरे क़ल्ब-ए-ज़ार में कट जाए सारी उम्र तिरे इंतिज़ार में क्या बात है फ़ज़ा-ए-चमन क्यों उदास है फूलों में ज़िंदगी न तड़प है बहार में पहले तो ख़ैर उन के सितम ही का था गिला दिल भी नहीं है अब तो मिरे इख़्तियार में लिल्लाह दीजिए न जुदाई का ग़म मुझे इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-सोगवार में 'अंजुम' मिरी निगाह ने दिलकश बना दिया वर्ना कशिश तो कुछ भी न थी हुस्न-ए-यार में