इक बर्क़-ए-तपाँ कौंदे बिजली सी चमके जाए इस आरिज़-ए-रंगीं से पर्दा जो सरक जाए ज़ाहिद हो तो छक जाए नासेह हो तो थक जाए कम-ज़र्फ़ है वो मय-कश जो पी के बहक जाए सावन की घटा उट्ठे भादों का समाँ बाँधे वो ज़ुल्फ़ जो बिखरा दे माहौल महक जाए कलियों के तबस्सुम पर तुम भी न कहीं हँस दो डर है कि रग-ए-गुल में काँटे न खटक जाए ऐ जुरअत-ए-रिंदाना कुछ तू ही मदद फ़रमा या उन का हिजाब उट्ठे या मेरी झिझक जाए आए भी तो हो जाए जज़्ब आँखों ही आँखों में वो अश्क नहीं है जो पलकों से ढलक जाए क्या शय है तअ'ल्लुक़ भी क्या चीज़ है निस्बत भी जब ज़िक्र तिरा आए काँटा सा खटक जाए अब सब्र-ओ-तहम्मुल का ऐ 'ताज' ख़ुदा-हाफ़िज़ पैमाना लबालब है देखो न छलक जाए