इश्क़ की कोई तफ़्सीर थी ही नहीं वास्ते मेरे तक़दीर थी ही नहीं किस लिए हो के मजबूर तुम आए हो बीच दोनों के ज़ंजीर थी ही नहीं आलम-ए-रंग-ओ-बू को सजाया गया इस तमाशे में तक़्सीर थी ही नहीं तेरे दर्शन को आँखें तरसती रहीं ख़ाना-ए-दिल में तस्वीर थी ही नहीं उस को 'अम्बर' घसीटा गया था यूँही राँझे के वास्ते हीर थी ही नहीं