इक दबे अक्स को उकेरा जाए By Ghazal << दिखाए मोजज़े गर वो बुत-ए-... अश्क-बारी नहीं फ़ुर्क़त म... >> इक दबे अक्स को उकेरा जाए उस के काँधे पे हाथ फेरा जाए तोड़ कर अब शनावरी के उसूल रात भर बिस्तरों पे तैरा जाए चंद जिस्मों को धूप में रख कर आज परछाइयों को घेरा जाए अब मिरी दौड़ने की ख़्वाहिश है फ़र्श पे आग को बिखेरा जाए Share on: