इक दर्द की लज़्ज़त ही सही ख़्वाहिश-ए-ग़म में आँखें ही न बह जाएँ कहीं बारिश-ए-ग़म में इस घर की सजावट तो अनोखी है सदा से दिल रोज़ उजड़ता रहा आराइश-ए-ग़म में इतना भी सुकूँ पहले तो हासिल ही नहीं था जितना है मयस्सर अभी आसाइश-ए-ग़म में अब दूसरी दुनिया ही सँवर जाएगी शायद जन्नत की तमन्ना है बहुत काविश-ए-ग़म में हाँ ख़ल्क़ बनाएगी यहाँ रोज़ फ़साने तुम साथ ज़माने के रहो पुर्सिश-ए-ग़म में