इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला बस-कि हर काम हुनर से निकला मैं तिरे ब'अद फिर ऐ गुम-शुदगी ख़ेमा-ए-गर्द-ए-सफ़र से निकला ग़म निकलता न कभी सीने से इक मोहब्बत की नज़र से निकला ऐ सफ़-ए-अब्र-ए-रवाँ तेरे ब'अद इक घना साया शजर से निकला रास्ते में कोई दीवार भी थी वो इसी डर से न घर से निकला ज़िक्र फिर अपना वहाँ मुद्दत ब'अद किसी उनवान-ए-दिगर से निकला हम कि थे नश्शा-ए-महरूमी में ये नया दर्द किधर से निकला एक ठोकर पे सफ़र ख़त्म हुआ एक सौदा था कि सर से निकला एक इक क़िस्सा-ए-बे-मअ'नी का सिलसिला तेरी नज़र से निकला लम्हे आदाब-ए-तसलसुल से छुटे मैं कि इमकान-ए-सहर से निकला सर-ए-मंज़िल ही खुला ऐ 'बानी' कौन किस राहगुज़र से निकला