इक हुस्न-ए-बे-मिसाल के जो रू-ब-रू हूँ मैं महसूस हो रहा है ख़ुद अपना अदू हूँ मैं अपनी गिरफ़्त-ए-शौक़ से निकलूँ तो किस तरह फैला हुआ जहाँ में हर एक सू हूँ मैं मुझ पे तिरी हयात का दार-ओ-मदार है जज़्बों से झाँकता हुआ ज़िंदा लहू हूँ मैं गूँजूँगा तेरे ज़ेहन के गुम्बद में रात-दिन जिस को न तो भुला सके वो गुफ़्तुगू हूँ मैं हर सुब्ह एक मार्का-ए-कर्बला सही हर शाम अपने दोस्तों में सुर्ख़-रू हूँ मैं पूछूँ मैं किस से आलम-ए-इम्काँ में किस लिए अपने ही नक़्श-ए-पा की तरह कू-ब-कू हूँ मैं 'सैफ़ी' में अपने आप में नीलाम हो गया किस को ख़बर थी शहर में इक ख़ूब-रू हूँ मैं