क़िस्मत में ख़ुशी जितनी थी हुई और ग़म भी है जितना होना है घर फूँक तमाशा देख चुके अब जंगल जंगल रोना है हस्ती के भयानक नज़्ज़ारे साथ अपने चले हैं दुनिया से ये ख़्वाब-ए-परेशाँ और हम को ता-सुब्ह-ए-क़यामत सोना है दम है कि है उखड़ा उखड़ा सा और वो भी नहीं आ चुकते हैं क़िस्मत में हो मरना या जीना अब हो भी चुके जो होना है दिल ही तो है आख़िर भर आया तुम चीं-ब-जबीं क्यूँ होते हो हम तुम को भला कुछ कहते हैं तक़दीर का अपनी रोना है ग़म काहे का यारो मातम क्या बदलोगे निज़ाम-ए-आलम क्या मरना था 'रज़ा' को मरता है ये काहे का रोना धोना है